13 जुलाई 2011

अ -प्रासंगिक

खिलखिलाता हँसता दौड़ता भागता शहर ,
कैसे बेजान हो गया पूरा का पूरा 
माँ के जाते ही ?
खिलखिलाहटें,उनके हाथ का भोजन
और घंटों गपियाने की ललक
उत्सव की प्रतीक्षा ,घर का पूजा स्थल ...सब कुछ
क्या माँ की जान में बसी थी इन सबकी सांसें?
कुछ दिन पहले की ही तो बात है जब
सडक किनारे लगा एक बूढा दरख्त
हांफता हुआ जड़ से उखड गया था,
वीरान हो गईं थीं स्मृतियाँ मौसम की  ....  
घोसले जो दुबके रहे गोद में उसके 
राहगीर जो पाते थे दो पल का सुकून
सब के सब अनाथ हो गए !
कैसे कोई अकेला अपने साथ ले जाता है तमाम का सुकून ?
क्या इल्म है उन्हें कि वो कितने ज़रूरी थे कितनों के लिए
अपनी जिंदगी के अप्रासंगिक दिनों के अलावा ?

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