कल प्रकाशित मेरे एक लेख के सम्बन्ध में फोन आया ‘’आपने अच्छा लेख लिखा है लेकिन फलां व्यक्ति को इतना आभामंडित क्यूँ किया गया है ?वो कला का दुश्मन है ...’’.मैंने कहा एक शब्द भी उस व्यक्ति के बारे में नहीं लिखा गया है आप पढियेगा !उन्होंने कहा लेकिन उनका फोटो तो है लेख के साथ अन्य विद्वानों के बीच ?मैंने उनसे विनम्र निवेदन किया’’फोटो लेख में मै नहीं संपादक मंडल के लोग भेजते हैं ....जिन सज्जन का फोन आया था उनका कला जगत में अच्छी खासी पैठ है नाम है,और जिन व्यक्ति के बारे में वो आपत्ति कर रहे थे वो देश के नामी संस्थान के निदेशक हैं ! उनकी आपत्ति उन से यह थी कि वो रंगमंच में एक नया प्रयोग कर रहे हैं ,जो बेतुका है ..सिर्फ नाम और शोहरत कमाने का साधन !....देश के श्रेष्ठ कहानीकारों की कहानियों का मंचन .!..मैंने कहा ‘’कोई भी विधा हो साहित्य या कला .उसमे प्रयोग होना ही चाहिए नयी संभावनाएं टटोलनी ही चाहिए और ये स्वाभाविक भी है ,लेकिन एक तरफ हम शिकायत करते हैं नए हिंदी नाटक नहीं लिखे जाने और उनकी भरपाई अनूदित/अनुवादित नाटकों से करने की और दूसरी तरफ नए प्रयोगों पर आपत्ति?ये तर्कसंगत नहीं !हलाकि ये ज़रुरी नहीं कि हर नए प्रयोग से हर व्यक्ति संतुष्ट हो...बल्कि असंतुष्टि ही नए प्रयोगों की राह खोलती है !लेकिन विरोध उसका तरीका नहीं! इससे बेहतर है कि नए प्रयोगों से एकमत ना होने पर भी स्वागत करें और हम क्या उल्लेखनीय योगदान दे सकते हैं इस कला-विशेष को उन्नत करने में ये विचारे ,बजाय आपत्ति करने के !
सही चिन्तन्।
जवाब देंहटाएंनजरिया अपना-अपना.
जवाब देंहटाएंji bilkul....dhanywad rahul ji ,vandana ji
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