अक्सर टकरा जाता वो आदमी किसी से भी…कहीं भी
चौराहों पर.,किसी छुटभैया नेता के भाषणों को गौर से सुनता
..पार्टी दफ्तर के सामने..नारे लगाते युवाओं कि भीड़ में
.किसी धरने पर उकडू बैठा ,
किसी जुलूस के पीछे २ लटपटाते कदमों से गिरता पड़ता
जैसे जुलुस न हो किसी की शव यात्रा हो
शांत..मौन...संतृप्त ...बस पीछे २ जाना
पीछे बैठ जाना /ऐसे जैसे वो न गया तो देश भक्ति लानत देगी उस को
देश अहसानफरामोश और शहीदों की आत्मा नमक हराम कह कोसेंगे
जुलुस ,धरने,आन्दोलन सब उसके बिना अधूरे रहेंगे
चेहरे पर न कोई भाव न निर्भाव
खादी का कुरता पायजामा पहने
जिसका पीलापन और सलवटें हर बार और गहरा जाती है
पहले गांधी टोपी भी पहनता था
दारोमदार देश का और अपने गर्व को सिर पर धरे मुकुट की ठसक सा
पर टोपी जब से उधड़ गई है , नंगे सिर घूमता है
ऐसा अपराध-बोध आँखों में भरे ,जैसे सिर न हुआ....
..कंधे पर लटका झोला ,किसी छत पर टंगे ,बारिश झेले झंडे की मानिंद फीका और उदास
देशभक्ति का क़र्ज़ चुकाती रीढ़
कई जगह से सिली रबर की चप्पलें/सबूत की तरह, देह को घसीटती
जितने बार मिलता,हर दफे माथे पर एक लकीर और तैनात मिलती
पसीने को अपने गाढ़ेपन में भरे
बोलते वक़्त उसकी फूली हुई नसों का नीलापन और भी स्याह हो जाता
’’देखो ,पाप का घड़ा भर चूका है...बस क्रांति होने ही वाली है’
जवानी के जोशीले भाषणों का जो हिस्सा अंतिम वाक्य बना मुट्ठी में लहराया करता था
अब बात यहीं से शुरू होती है फुसफुसाती हुई
और यहीं दम भी तोड़ देती है
’कम्बखत,सांस जो बिखरने लगती है
तब,एक चाय की रेढ़ी के सामने अध् टूटी कुर्सी पर ,टांग पर टांग रखे
कट चाय का ऑर्डर दे अपने फटेहाल झोले में से कुछ मुडी तुड़ी उदासी निकालता है
जोश के लिफाफे में बंद/खोलता है उसे किसी पौराणिक दस्तावेज़-सा
बगल में बैठे किसी ग्राहक को गिनवाता है
,कितनी जगह रेलें रुकवाई उसने?
कितने चक्के जाम करवाए?
कितने बार धरने पर बैठा?
कितने सत्याग्रह किये?/
कितने आरोपियों को सजा दिलवाई?
कितने ज़माखोरों के गोदामों के मुह खुलवाए
कितने रिश्वत खोरों का भांडा फोड़ा
कितनी बार सरकार को घुटनों बिठाया
‘’’पर साब,किसी के आगे घुटने नहीं टेके हमने.
न ही हाथ फैलाये
.चाहे मंत्री ने बुलाया या मीडिया ने
,या मिल मालिकों ने,या फीता कटवाने/’
’कहते २ गर्व की चमक से चेहरा भींग जाता है उसका
आखिर हम देश के पहरेदार हैं/उसके मालिक नहीं
अंतिम शब्द हांफ कर अधरस्ते ही बैठ जाते हैं
पेपर कटिंग और कुछ श्वेत श्याम जवानी के चित्र हाथों के साथ काम्पने लगते हैं
रौशनी में नहाये शहर का नक्शा उसकी बुझी आँखों में थरथराता है
वो सड़कें ,वो पुल वो बाँध जिसके लिए भूँखा रहा वो
धरने दिए उसने /सुलगते सूरज की आग में नारे लगाये/
नहीं कहना चाहता कि पिछले कई दिनों से भूखा है वो
ये भी नहीं, कि उसने भ्रष्टाचार के विरोध स्वरुप सरकारी नौकरी से
स्तीफा दे दिया था
कि घर में बिलखते भूखे बच्चों को न देख पाने के कारन सुशील पत्नी घर छोड़कर चली गई
पर उम्मीद अब भी शेष है कडकडाती हड्डियों और हांफती साँसों में कि
‘’पाप का घड़ा ज़रूर भरेगा...क्रांति ज़रूर आयेगी...कभी न कभी
....किससे कहे?ग्राहक तो कबका जा चूका....?
बिल्कुल सटीक और सार्थक चित्रण किया है।
जवाब देंहटाएंपर उम्मीद अब भी शेष है कडकडाती हड्डियों और हांफती साँसों में कि
जवाब देंहटाएं‘’पाप का घड़ा ज़रूर भरेगा...क्रांति ज़रूर आयेगी...कभी न कभी
....किससे कहे?ग्राहक तो कबका जा चूका...
बहुत सशक्त लिखा है ..
dhanywad vandanaji,sangeeta ji
जवाब देंहटाएंविचारोत्तेजक।
जवाब देंहटाएंthanks manoj ji ...
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