3 अक्तूबर 2010

सुबह

धीमी पड़ी है जबसे
रौशनी सितारों की,
,तरस गई हैं चांदनी
करने को धरती का आलिंगन
भीमकाय इमारतों के
बेतरतीब फैले
सायों के पहरों में
ठिठकी आती है रोजाना
रात के घनघोर सन्नाटे में
और लौट जाती है उदास
सवेरा होते ही
क्यूंकि जाना ही होता है उसको
फिर वापस आने के लिए
यूँ इस तरह अट जाना धरती का
पेड़ों की जगह
मनुष्यों से,
हवा की जगह
भय से
यकीन की जगह
नाइंसाफी से,
सुकून की जगह
अँधेरे भय के प्रेत से
फ़ैल चुका हैं जो
चेहरों से असमान तक,
आस्था से आत्मा तक,
चोटों से विशवास तक,
सच से झूठ तक
सत्ता के लिए सत्ता को
विस्मृत कर देना
वास्तव में,
खारिज कर देना है खुद को
या शायद,
एक निकट है किसी अंत का
ये सच है
उतना ही जितना कि
किसी बुरे अंत को
किसी शुरुवात का माना जाना
एक शुभारम्भ
और आरंभ कोई या किसी का हो
होता है हमेशा ही
हरा भरा
प्रथ्वी की तरह
या किसी नवजात शिशु की
उनींदी मुस्कराहट सा
या फिर ताज़े कोमल फूलों की
खुबसूरत सुगंध सा
इंतजार है अब तो बस
उसी एक सुगन्धित
अहसास का
जीवन जीने के लिए
ये उम्मीद क्या काफी नहीं?

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