7 अक्तूबर 2010

रास्ते


मेरे बचपन की वो पगडंडी
.बारिश की सोंधी 
महक  से गुलज़ार,
खुशबूदार खुबसूरत
फूलों से लदी डालियों से
घिरी,और
झरे हुए पतों और फूलों पर
दौड़ता मेरा बिंदास
बचपन
आदि और अंत से 
बेखबर
और  एक दिन अचानक 
पगडण्डी,मेरी उंगली थामे
दुलारती  ,पुचकारती
मुझे छोड़ आई थी
उम्र के अगले पड़ाव तक 
यानि 
एक भीड़ भरी
सुनसान सड़क,
जहाँ सिर्फ शोर था
और अकेली  मैं
जैसे,माँ की उंगली से छूट,
कोई बच्चा  मेले में अचानक 
गुम हो जाये 
भरी भीड़ में
अकेला रह जाये!
भीड़ 
अकेलेपन की कसक को
मिटा नहीं सकती,
बल्कि और बैचेन कर देती है,
एकांत के एक अदद  पल के लिए!
उस भीड़ का हिस्सा न बनने के
एवज में 
अवसाद,कुंठा और 
निराशा से मित्रता भी हुई
पर ये मित्र
भीड़ से बेहतर थे शायद
तभी तो 
ये दौर मेरे जीवन का
सबसे अहम दौर था
जिसने मुझे
खुद अपने से बाहर आने को 
प्रेरित  किया और
यही वो हिस्सा था
मेरे जीवन का
जब मैं सबसे मज़बूत हुई
हालाकि,
बहुत दूर छुट गई है पगडण्डी
शायद अस्तित्वहीन हो गई हो
पर 
आज भी इंतजार है मुझे
उस सोंधी मिटटी की
खुशबू का
आज भी दौड़ना चाहता है मन
फूलों भरे  रास्तों पर

12 टिप्‍पणियां:

  1. आज भी इंतजार है मुझे
    उस सोंधी मिटटी की
    खुशबू का
    आज भी दौड़ना चाहता है मन
    फूलों भरे रास्तों पर

    बचपन कि यादें कभी नहीं भूलतीं ...बहुत सुन्दर रचना ..

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद् संगीता जी
    आप जब भी मेरा ब्लॉग पढ़ती हैं,आप नहीं जानतीं कितना हौसला दे जाती हैं मुझे. i am realy very thankful to you mam. आपका ब्लॉग बहुत rich है,वक़्त कम मिल पता है इसलिए बहुत समय नहीं निकल पाती,आपका ब्लॉग फुर्सत में पढने लायक है!
    thanks
    vandana

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  3. अनामिका जी
    स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग पर आने के लिए !बहुत धन्यवाद् कि आपने मेरी कविता को चर्चा मंच मे शामिल करने के योग्य समझा!माफ़ी चाहती हूँ कि मुझे ब्लॉग की अभी तकनीकी जानकारी ज्यादा नहीं है लेकिन आप यदि मेरी कविता को जब भी शामिल करेंगी तो मुझे ख़ुशी होगो
    वंदना

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  4. बचपन की यादें ही ऐसी यादें होती है जो सहेजने लायक होती है बाकी ज़िन्दगी तो सिर्फ़ यूँ ही गुजर जाती है………………बहुत बढिया लिखती हैं आप्……………इसी प्रकार लिखती रहिये।

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  5. आज भी दौड़ना चाहता है मन
    फूलों भरे रास्तों पर
    सुकोमल भावों से युक्त एक प्रभावशाली कविता...बधाई।

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  6. बहुत बहुत शुक्रिया महफूज अली जी !आपके ब्लॉग के कुछ हिस्से मैंने पढ़े थे....लाज़वाब ...सच ! फुर्सत में पढने और फुर्सत में comment देने लायक,पर क्या करूँ ज़िन्दगी की भाग दौड़ में रुचियाँ neglected हो जाती हैं ... thanks again
    वंदना

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  7. वन्दना जी आप कि रचना से वो दिन याद आ गए
    बिछी रहती थी हरियाली, जब हम खेला करते थे |
    था बचपन मेरा जब, तो उसकी गोदी, में रहते थे ||
    बहुत - बहुत शुभ कामना
    --

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  8. शुक्रिया दीपजी
    सच कहा आपने....दुनियां की तमाम ज़द्दोज़हद और परेशानियों के बाद भी हम बचपन कभी नहीं भूलते...और शायद भुलाना चाहिए भी नहीं
    पहली बार मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
    धन्यवाद्
    वंदना

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