24 अक्तूबर 2010

किरचें


बहुत कुछ छोड़ चुकी हूँ  पीछे,
रिश्ता,दोस्ती,जगह,परिवेश
परिचय,धरती,लोग और युग!
और उन सभी का  
छूटते  या फिर टूटते चले जाना,
महज़ एक संयोग नहीं रहा !
सच कहूँ तो,
उन पर मेरा वश भी नहीं था!
दरअसल 
जब किसी चीज़ पर 
अपना वश नहीं  होता
तो,वो विवशता ही तो 
होती  है!
कुछ रिश्ते ज़ेहन से,
ओझल-से होते चले गए,
और कुछ ,अंतर्लीन,
और कुछ बाकायदा गायब...!.
पर कुछ खुबसूरत रिश्ते,
जो कांच से पारदर्शी
पर नाज़ुक थे ,संभल नहीं सके
मुझसे शायद ,और 
छूटकर बिखर गए,,
भीतर ही भीतर  कहीं,
जिन्हें टूटकर बिखरने 
न देने  की सभी कोशिशें
नाउम्मीदों  के साथ 
खारिज होती गईं!
टूटा हुआ कांच कुछ
ज्यादा ही चमकता है 
जिसकी नुकीली किरचों से 
आत्मा तक 
आहत हो जाती है!
ये चुभन अपेक्षाकृत 
कुछ 
ज्यादा ही  तकलीफदेह
होती है ,क्यूंकि 
इसमें शामिल होता है
 दिल भी !

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