29 सितंबर 2010

अधेरे के बाद की सुबह ...

वो दोनों देर तक एक दुसरे को देखते रहे!आश्चर्य,अभूतपूर्व ,असोचा,!स्त्री और पुरुष लगभग साठ वर्ष बाद देख रहे थे एक दुसरे को !इससे पहले उन्होंने तब देखा था जब उनकी उम्र स्त्री और पुरुष में भेद करने लायक हो ही रही थी ! अचानक दोनों की आँखों मे स्वप्न उतर आए थे !विचित्र मगर अलौकिक अनुभव था वो !पर जब तक मन का पन्छी उड़ान भरने लायक होता उन्हें एक दुसरे से सप्रयास अलग कर दिया गया था और आज फिर दोनों का आमना सामना हो रहा था !पहचानने के बाद जब कुछ होश आया तो दस बारह बरस की उम्र की वो लालिमा स्त्री के झुर्राए चेहरे पर अनायास फ़ैल गई ऑंखें झुक गईं ! !पुरुष मुस्कुरा दिया !बोला ''मायूस होने का नहीं, उत्सव मनाने का मौका है !चलो आज हम अपने गुज़रे हुए जीवन का विश्लेषण करें !पहले तुम शुरू करो !पर शर्त यही रहेगी की कहीं भी उदासी और .मलाल .नहीं लायेंगे !स्त्री ने कहना शुरू किया ''रात के घुप्प अँधेरे के बाद की सुबह का धुंधलका था....संधि प्रकाश की बेला .......प्रकृति के उस असीम सौंदर्य के बीच मैंने अपनी ऑंखें खोली थीं...मेरा जन्म ....अँधेरे भरे .बीते स्वप्न के बोझ से भरी थकी थकी अलकें ! मेरे चारों और मनुष्यों की भीड़ थी !हँसते खिले चेहरे ,मुझ पर झुके हुए ...फूल की मानिंद सहेजा था मुझे जिन्होंने !धीरे धीरे सुबह का उजास प्रकृति के साथ ठिठोली करता प्रखर हो उठा .....पक्षियों ने मुखरित हो उसका स्वागत किया ...शायद मेरा भी !मै अपने ''होने''पर इतराती इठलाती उस पौधे के साथ उगने लगी जो मेरी ही तरह रोपा गया था !
मेरे अस्तित्व के कुछ मालिक थे जिनपर मेरे तमाम जीवन का जिम्मा था.जीवन मेरा था सपने उनके.देह मेरी थी देखभाल और सजावट उनकी ! ,शब्द मेरे चाह उनकी !,उन्हें माँ और पिता कहती थी मै!
पर सूरज की उगती किरणों ने जैसे मेरे अस्तित्व को मुझे सौंप एक अमूल्य और अनोखी भेंट दी थी मुझे !जगत और आरोपित नाते रिश्तों के मायाजाल को समेट मैं अपने खुद के भीतर समाने लगी...लोग मुझपे अंतर्मुखी होने का दोष लगाने लगे !!मेरी इच्छाओं की खिड़कियाँ खुल रही थीं जहाँ से सपनों का अनंत संसार दीख पड़ता था !मैं उसमे विलीन हो जाना चाहती थी सम्मोहित होना चाहती थी!पर सूरज की तपन अब तक एन सर के ऊपर आ पहुँची थी !मेरी तमाम वो इच्छाएं और जिज्ञासाएं उन लोगों की इच्छाओं की मोहताज़ थीं जो खुद पर मेरे ''होने''का दंभ पाले हुए थे
मेरे वो तथाकथित हितैषी अब शत्रु से लगने लगे थे मुझे जिसका एक सिरा मेरे तुम्हारे अधूरे प्रेम की शुरुआत थी !मैं जीना चाहती थी.एक इंसान की तरह .संसार को जी भर भोगना चाहती थी .पर तभी मुझे मेरी जड़ों से उखाड़ देने की साजिश रची जाने लगी ! विद्रोह की तपन दोपहर की चिलचिलाती धुप सी जिस्म को तपा रही थी पर जिन्दा रहने की शर्त के चलते मेरे अस्तित्व के ठेकेदारों की हर निर्णय और चाहत को धीरज से सहना मेरी मज़बूरी थी !जिस पेड़ की छांह के नीचे खडी हुई वो वहां से नदारत था ....ये वक़्त सुबह,जहाँ से मेरी शुरुआत हुई थी से मीलों दूर हो चूका था !मेरी जड़ों और रोपी गई शाखाओं के मध्य मैं एक बड़ा अंतराल था जो कभी भर नहीं पाया दो ऐसी लम्बी सड़कें जो सामानांतर चलने को श्रापित थी !!सुबह की तमाम ताजगी और सपने दोपहर की धूप की तपन से बचने की जुगत में जाया हो गए थे !कभी लगता ज़िन्दगी बहुत लम्बी खिंचती चली जा रही है .थकी देह ,विश्रांति पाने को रात की देहरी पर प्रतीक्षा रत थी,अपने समय का इंतज़ार करती! पर न जाने क्यूँ अब मुझे लग रहा है की बगैर रात आये सुबह की किरण फिर से मुस्कुराती मेरे अस्तित्व का बंद द्वार खटखटा रही है !क्या मै कोई स्वप्न देख रही हूँ ?''''स्त्री शांत हो गई !पुरुष जो एकटक स्त्री को देख रहा था फिर मुस्कुरा दिया ''सुबह ही तो है ...एक सुबह के बाद की सुबह .....वो एक लम्बा स्वप्न था जो तुमने जिया,आज ये हकीकत है की हम साथ हैं !सेम्युअल बेकेट ने अपने एक नाटक मै लिखा था कि ''ज़िन्दगी निरंतर अपने ''नहीं होने ''की दिशा की और बढती है'' !अतीत एक नाटक है जिसके पात्र घूम फिरके एक ही होते हैं माँ बाप पड़ोसी रिश्तेदार दोस्त दुश्मन प्रेमी बस शक्ल अलग होती हैं कृत्यों मै भी कोई खास फर्क नहीं !''
आज अपना ये घर व्रध्धाश्रम , जो बुढ़ापे की परिणिति ही है 'क्या फर्क पड़ता है,इससे की हम कहाँ हैं?दीवारों का ही तो फेर है !मोह माया से दूर ,एक निर्लिप्त ,और निर्मोह स्थान ,जो उस यात्री की तरह है जो एक निश्चित साफ़ लम्बी सड़क को छोड़कर अनायास एक पगडण्डी मै उतर आया हो !

2 टिप्‍पणियां:

  1. पिछली सारी रचनायों से जुदा, अमूर्त और बेहतरीन.
    आपकी लिखाई अब आसमान का रुख कर रही है. आशा है आगे भी ऐसी पोस्ट्स पड़ने को मिलती रहेंगी.

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