एकांत !
हाँ शायद वही
पसंद है मुझे,
पर बेआवाज़ ,मौन और
निहायत व्यक्तिगत
चाहा यही सदा,
पर हुआ नहीं
बैठती हूँ जब भी
शांत .मौन और अकेली
खुद अपने साथ
बस और सिर्फ अपने लिए
ऑंखें बंद कर
भीतर को महसूसती ,कि
जाग जाता है अचानक
घटनाओं का कोलाहल
कुण्डलिनी की तरह
अतीत का व्यतीत
किसी डरावने धारावाहिक की तरह
और बैचेन कर जाता है मुझे .
भीतर तक
तब मै नहीं मिला सकती ऑंखें अपने
उदास मन से और
फिर आ बैठती हूँ उन्ही
दोस्तों के पास जो
दोस्त कभी थे ही नहीं
पर उन्हें दोस्त कहना
बस विवशता ही थी मेरी
क्युकी वो नहीं तो
इस भरी पूरी दुनियां में
और कौन जो
मेरे एकांत के शोर को बाँट सके
एक दोस्त की तरह
तब मै नहीं मिला सकती ऑंखें अपने
जवाब देंहटाएंउदास मन से और
फिर आ बैठती हूँ उन्ही
दोस्तों के पास जो
दोस्त कभी थे ही नहीं
ज़िन्दगी से जुड़े पह्लूं हैं ...शायद इसलिए कहीं ठहरती है कविता ......बधाई ....!!
thanks harkeeratji
जवाब देंहटाएंvandana
इस भरी पूरी दुनियां में
जवाब देंहटाएंऔर कौन जो
मेरे एकांत के शोर को बाँट सके
एक दोस्त की तरह
'मैं' ही तो जवाब है.
बाकी सब धूल है :)
बहोत ही अच्छी कविता है.
जवाब देंहटाएंthanks aroh ji ishanji
जवाब देंहटाएंaap jaise sudhi pathak hee to meri prerna hian
thanks again