16 सितंबर 2010

विवशता

न जाने क्या हुआ है सपनों को,
आजकल मेरे ,
बंद पलकों का लिहाज़ ही नहीं करते?
आते जाते हैं वक़्त बेवक्त
बिन बुलाये मेहमानों से
और दे जाते हैं हलकी सी दस्तक
दिल के दरवाजे पे वो
फिर चले जाते हैं,मेरी तन्हाई की
ऊँगली थामे
छोड़ जाते हैं मुझको ,
मन के कोलाहल के साथ
नशा उन्मुक्त सपनों का
बिखर जाता है मोती -सा
उन्हें बस बीनती रहती हूँ अक्सर
भीगी आँखों से

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