9 अक्तूबर 2010

वक़्त


जिंदगी से अब कोई 
शिकवा नहीं हैं 
सिवा इस दर्द  के कि 
वक़्त का बेवक्त आना
और गुज़र जाना 
किसी तूफान सा और 
कुछ पलों तक
यादों  की कश्ती का                      
फिर से  
डगमगाना 
ज़िन्दगी के
अनखुले प्रष्टों को 
जो मै देख पाती
बहुत मुमकिन था
कि तब,
ख्वाबों को कुछ
बेहतर सजाती 
अब तो सच और
ख्वाब में अंतर नहीं
कुछ भी रहा  है !
नींद में सच देखती और,
दिन में  सपने पालती हूँ
बस सुकून देने खुद को
सैंकड़ों करती जतन हूँ
वक़्त की हर चाल  वर्ना,
किंचित सही
पहचानती हूँ!

11 टिप्‍पणियां:

  1. नींद में सच देखती और,
    दिन में सपने पालती हूँ


    वाह , बहुत खूब

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  2. धन्यवाद् संगीता जी !मुझे ख़ुशी है कि मेरी कवितायेँ आप पढ़ रही हैं.कृपया कुछ कमियां हो तो अवश्य बताइए
    वंदना

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  3. thanks Aroh....


    विदेश में रहकर हिंदी कविता के प्रति आपकी समझ और सराहना को मेरा साधुवाद स्वीकारिये
    वंदना

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  4. सच तो लिखा है एक दम ...यही तो यथार्थ अब हमारे बीच रह गया है.सुंदर रचना.

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  5. वक़्त का बेवक़्त आना और गुजर जाना...
    वाह,जवाब नहीं इस पंक्ति का, क्या खूब कही है...अत्यंत प्रभावशाली कविता..बधाई

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  6. thanks anamikaji and Mr verma.apke comment mere liye bahut ahmiyat rakhte hain.apko achchi lagi kavita ...i m very happy for that
    thanks
    vandana

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  7. बेहद खूबसूरत. बार बार पढ़ के भी मन नहीं भरता :)
    आशा है ऐसी ही कवितायें आगे पढने को मिलती रहेंगी.

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