19 अक्तूबर 2010

एक कोशिश



गंतव्य की तलाश में,
दौडती रेलगाड़ी की,
 खुली खिड़की,
और एक निहायत ही,
खूबसूरत सुबह
कितना सुकून देती हैं ये
दो चीजें ,मन-देह को? 
सुदूर तक फैला
आसमान
मैदान,पेड़ पौधे,पगडंडी,
और पोखर
अपनी अपनी जगह पर स्थित
शांत और धैर्यवान,
पर नज़र आ रहे
बेइंतिहा
भागते
दौड़ते
रेल की गति के साथ,
अतीत ,वर्त्तमान और
भविष्य के द्वंदों की तरह,
कोशिश है मेरी कि
 खारिज होती जाये मन से
वो तमाम तकलीफें,,
पछतावे  और ग़म 
,हवा को चीरती
रेल की गति से 
 पीछे छूटते जाते,
गुजरते हुए,वक़्त और,
बीतेते वनस्पतियों की तरह,
ताकि
तारतम्यता 
 कायम रह पाए,
नए सपनों,और विचारों के
अगले पड़ाव और
सुबह की ताजगी के बीच 

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