20 अक्तूबर 2010

अंतहीन

एक  निश्छल,सरल ,और
बिंदास ,
बचपन के बीच भी
लडती रही परम्परगत 
मान्यताओं से मै,
बेकसूर होने के बावजूद,
बेवज़ह रोकटोक और
तथाकथित ''समाज की ''
 फिक्रों  से घिरी 
उन 
डांट फटकार और 
नियमों  के खिलाफ
जो ''पराये घर ''जाने 
के आतंक से
डरी हुई थीं !
लडती रही.....,
जवानी में खुद के 
''अस्तित्व को''
उसी ''समाज''के एक हिस्से से
''सुरक्षित''रख पाने और
नारी स्वातंत्रय''की
पारंपरिक कुंठा के
द्वन्द के साथ !
जूझती रही मै
अपने ही घर में
पराये  व्यवहार और
पराये घर में
''अपने से ''व्यवहार की
अपेक्षाओं तथा ,
अनगिनत असोचे कर्तव्यों की
उम्मीदों  के खिलाफ!
तब से अब तक,
बस जूझती ही  रही हूँ मै
और लडती रहूंगी
तब तक ,
जब तक कि
मेरी कोशिशों को
सम्मान नहीं मिल जाता! !

9 टिप्‍पणियां:

  1. जूझती है अपने वजूद के लिए ...
    ढूंढती है अपनापन परायों में ...
    पाती हैं परायापन अपनों में ....
    कभी होती है सफल ...
    कभी असफल भी ...
    हर लड़की अपनी तमाम उम्र शायद यही करती रहती है ...

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  2. dhanyawad vaniji
    bilkul sahi kaha apne....ummed ki ja sakti hai ki nirasha ka daur jaldi hee khatm hoga
    vandana

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  3. बेहद उम्दा प्रस्तुति।
    आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (22/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

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  4. बहुत बहुत धन्यवाद वंदना जी
    ''चर्चा मंच'' की रचनाएँ अभी मैंने देखीं!बहुत रोचक सामग्री है !इसकी सदस्यता भी लेनी होती है क्या?आपकी टिप्पणी मेरे लिए महत्वपूर्ण होती है
    पुनः धन्यवाद
    वंदना

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  5. अपने ही घर में
    पराये व्यवहार और
    पराये घर में
    ''अपने से ''व्यवहार की
    अपेक्षाओं तथा ,
    अनगिनत असोचे कर्तव्यों की
    उम्मीदों के खिलाफ!
    bahut sarthak abhivyakti

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  6. नारी मन की अंतर्व्यथा को चित्रित करती, गहन संवेदनाओं से परिपूर्ण एक बेहद मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

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