30 अक्तूबर 2010

बचपन



देखती हूँ  रोज़ सुबह 
घर के सामने से ,
स्कूल  को जाते  हुए 
कुछ उदास थके से बच्चे!
अपनी कोमल दुबली
 देह पर टांगे बोझिल बस्ते,!
ठसाठस भरे बस्तों  और
शुद्ध पानी की लटकाई गई 
बोतल से अपने कमज़ोर 
 कन्धों को झुकाए!,
भारी भरकम बस्ता ,जिसमे
 कैद है उनका भविष्य , 
एक जादू की पोटली- सा,
पोटली ,जिसमे भरे हैं
मम्मी डेडी के कुछ
अतृप्त तो कुछ,
विचित्र सपने, और
कहीं सहमी सी  दुबकी  हैं
समाज और देश की 
अपेक्षाओं की संभावनाएं भी !
इन्ही सपनों /अपेक्षाओं के
 बोझ में दबा वो टटोलता है अपना 
 बचपन, इन्हीं के बीच में कहीं !
जो उसे कहीं नहीं मिलता !
मिलता है तो,बस टोनिक से लेकर 
 मिनरल वाटर तक,फ्रूट जूस से लेकर
ड्राई  फ्रूट्स तक ,आधुनिक खेल -खिलौने 
आरामदायक बिस्तर या फिर,
इनमे से कुछ भी नहीं ,क्यूंकि 
माता  पिता की गाढी और 
मेहनत की कमाई खर्च  हो जाती है 
उसे ''योग्यता ''की इस
रेलमपेल में ''फिट''कराने  में 
तिस पर ,बहराई और  
भ्रमित  शिक्षा पद्धतियों 
और शिक्षा संस्थानों  के 
निरंतर बदलते पाठ्यक्रम  
और नित नए प्रयोग!
जिससे अभी दो -चार होना 
बाकी है उसका !
इन त्रासदियों से भी !
घर से स्कूल,स्कूल से ट्यूशन 
ट्यूशन से होम वर्क
और ''मनोरंजन ''के नाम पर
''कार्टून फ़िल्में'',और बस 
इन्ही के बीच भागता 
उनके बीच हांफता,ताल मेल बिठाता 
दौड़ता बचपन, देश का भविष्य !
परिवार समाज देश की 
आशाओं पर खरा उतरने 
एडी से चोटी तक चक्कर घिन्नी बना 
बच्चा अवसादित ,किंकर्तव्य विमूढ़ !
शिक्षा पद्धति के नवीन प्रयोगों की
 भीड़ के क्रम में अब,
 ''नैतिक शिक्षा की जगह
बैठा दिया गया है  एक
 'बाल मनोविज्ञान का काउंसलर भी  '
जो नज़र रखेगा बच्चे की तमाम 
गतिविधियों पर जैसे की  ,
बच्चे आखिर  क्यूँ 
अवसाद में रहते हैं?
 जिद्दी है पढता नहीं?
या  क्यूँ आत्महत्या जैसे 
खतरनाक कदम उठाते हैं ?
वगेरा वगेरा, और खोज
 निकालेगा सैंकड़ों 
उलजुलूल  वजहें!.काश की,
बच्चे को  ये पूछे जाने की मोहलत 
मिल पाती,की क्या चाहता है 
वो खुद?की,   उसके बचपन पर
उसका भी कोई हक है ?की,,
नहीं चाहिए उसे नर्म बिछौने,न
टेडी बिअर ,.न कार्टून फिल्मे ,न 
तमाम किस्म के विटामिन टोनिक,
फल कपडे खिलौने बस ,
छोड़ दिया जाय उसे खुले फैले 
मैदान में जहाँ दौड़ सके वो 
बिंदास ,स्वच्छंद 
निर्विघ्न ,जब चाहे !
खुबसूरत रंग बिरंगा बेड रूम 
देने के बजाय दे दें  एक
अदद  दीवार और पेंटिंग के
 कुछ ब्रुश और
कुछ रंग जिनको बिखेर,
वो भर पाए कुछ रंग
 अपने बचपन  में  भी !

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी तरह आज के बचपन का खाका खींचा है ...कविता की दृष्टि से थोड़ी लंबी हो गयी है ..लेकिन बात तो पूरी ही कहनी थी ...कहाँ मिलता है आज बच्चों को मैदान जिसमें दौड लगा सकें ...अपने रंग भर सकें ...बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  2. बहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति है.
    संवेदनशील विषय को बड़े सरल और सीधे शब्दों में उठाया है.
    ऐसे ही लिखते रहें.

    धन्यवाद

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  3. पूरा चित्रण कर दिया.....लेकिन कोई तब भी किसी बचपन की आवाज़ सुन पाए तो ये मेहनत सफल हो जाये और मन को सुकून मिल जाये.

    बहुत सुंदर रचना.

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  4. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 02-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

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  5. apne is sreshth drishtikon ko vatvriksh ke liye bhejen rasprabha@gmail.com per parichay aur tasweer ke saath

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  6. एक बेहद संवेदनशील और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  7. भावों को बहुत बेहतर उकेरा है...सच में. बेहतरीन रचना.

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  8. बहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति है.

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  9. वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
    आप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
    बधाई.

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  10. धन्यवाद् !!आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें
    वंदना

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  11. बचपन के प्रति चिंता जायज है
    बेहतरीन रचना

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